जैन धर्म में "हरी" यानी हरी घास या हरी भूमि पर चलने की मनाही का एक गहरा धार्मिक और अहिंसात्मक कारण है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
अहिंसा का सिद्धांत (Non-violence):
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जैन धर्म का मूल सिद्धांत है अहिंसा परमो धर्मः, यानी अहिंसा ही परम धर्म है।
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हरी घास में सूक्ष्म जीव (one-sensed beings) होते हैं — जैसे पंकज, जलकृमि, कीड़े-मकोड़े, आदि।
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हरी घास को कुचलने से ये जीव मर सकते हैं, जिससे हिंसा होती है।
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🌱 एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा:
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जैन दर्शन के अनुसार, घास, पौधे, वृक्ष आदि में एक इंद्रिय (स्पर्श) होती है और ये भी जीव हैं।
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उन पर चलने से उनके प्राणों को कष्ट पहुँचता है — और ये भी पाप में गिना जाता है।
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🌿 सावधानी और संयम का अभ्यास:
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हरी घास पर चलने से पैर फिसल सकते हैं या भूमि गीली होने से दुर्घटना हो सकती है।
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संयमी जीवन जीने वाले मुनिराज और श्रावक ऐसे स्थलों से बचते हैं जहाँ असावधानी या हिंसा की संभावना हो।
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☀️ सूर्य की किरणों की रुकावट:
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हरी घास प्रकाश संश्लेषण से जीवित रहती है। उस पर चलने से उसका जीवन चक्र प्रभावित होता है।
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यह भी एक प्रकार की अप्रत्यक्ष हिंसा है।
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📿 जैन मुनि और श्रावक विशेष रूप से ध्यान रखते हैं:
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मुनिराज नंगे पाँव चलते हैं और भूमि को देखकर सावधानी से पाँव रखते हैं।
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श्रावक भी पर्व काल, तपस्या काल या व्रत में इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि कहीं जीवों की हिंसा न हो।
✨ निष्कर्ष:
जैन धर्म में हरी घास पर न चलने का कारण अहिंसा, जीवदया और संयम है। यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील और वैज्ञानिक सोच का प्रतीक है।
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